होली-होला-होलाक- होलिका दहन का महत्व अध्यात्मिक एवं वैदिक काल
सत्येन्द्र कुमार शर्मा
होली के अध्यात्मिक शाश्वत महत्वों से हम विमुख होते जा रहे हैं।
आज एक बीता साल समाप्त होता है और एक नये साल का शुभारंभ होता है। एक वर्ष के संपन्न एवं एक वर्ष के अंत होने के मौके पर यह महापर्व मनाया जाता है ।होली महापर्व जिसके संबंध में हमारे अध्यात्मिक सनातन धर्म संस्कृति में कई महत्वपूर्ण बातें कही गई है।
होली महापर्व सामाजिक सौहार्द एकता, अखंडता, सद्भाव, भाईचारा का परिचायक आदि काल से रहा है।
होली सामाजिक एकता, भाईचारा, अखंडता ,सद्भाव, मित्रता का परिचायक रहा है। होली की परंपरा अनादिकाल से चली आ रही है।
इस संबंध में जैमिनीसूत्र के रचयिता ने अपने ग्रंथ में होलिकाधिकरण नामक एक स्वतंत्र प्रकरण लिखकर होली की प्राचीनता को प्रदर्शित किया है। महर्षि वात्स्यायन ने भी अपने कामसूत्र में होलाक नाम से इस उत्सव का उल्लेख किया है।
विष्णुपुराण के अनुसार प्रमुख तौर पर यह त्योहार प्रह्लाद से संबंधित है। ऐसा माना जाता है कि इस पर्व का संबंध काम दहन से भी है। जब शंकर जी ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था। तभी से इस त्योहार का प्रचलन हुआ।
वैदिक काल में इस पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञ कहा जाता था। खेत से अधकच्चे व अधपक्के जौ,गेहूँ,चना आदि अन्न को यज्ञ की अग्नि में हवन करके प्रसाद लेने का विधान समाज में था। इस अन्न को होला कहते हैं। इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। इस पर्व को नव संवत्सर का आरंभ व वसंतागमन के उपलक्ष्य में किया हुआ यज्ञ भी माना जाता है।
इस वर्ष शास्त्रीय मान्यतानुसार बृहस्पतिवार को रात्रि 12:57 बजे के बाद होलिकादहन का मुहूर्त्त है। शुक्रवार को रंगोत्सव को नहीं मनाया जाएगा।शनिवार को उदया प्रतिपदा तिथि में रंगोत्सव मनाया जाएगा। महर्षिनगर स्थित आर्षविद्या शिक्षण प्रशिक्षण सेवा संस्थान-वेद विद्यालय के प्राचार्य सुशील कुमार पाण्डेय ने उपरोक्त तथ्यों के अलावा बताये है कि होली देवताओं का भी प्रिय पर्व रहा है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार श्रीकृष्ण ने द्वारिका वासियों, व्रजवासियों,अपनी रानियों, पटरानियों के साथ होली का उत्सव मनाया है।
भगवान शंकर ने तो श्मशान की राख से होली खेलकर अपने को कृतकृत्य किया है।आज हम मिट्टी धूल उड़ा कर मनाने है।
सूर्य के प्रकाश से अप्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष तक फैला प्रत्येक रंग विधाता की कल्पना का प्रमाण है।
हरा रंग समृद्धि,विकास तथा पुनः निर्माण का उद्घोष करता है तो पीला या केसरिया कल्पना,ज्ञान व बुद्धि की शक्ति को दर्शाता है। लाल रंग कर्मयोग के उल्लास को झलकाता है।
मगर काला रंग तामसिक प्रवृत्ति का प्रतीक है। अतः होली के अवसर पर काले रंग का उपयोग सर्वथा निषेध माना गया है।मान्यता के अनुसार अट्टहास, किलकारियों तथा मंत्रोच्चार से पापात्मा राक्षसों का नाश हो जाता है। इसलिए होलिकादहन के समय सभी उच्चे स्वर में अट्टहास व किलकारियाँ मारकर होलिका के चारो ओर झूम झूमकर आदर्श नृत्य संगीत प्रस्तुत करने की परम्परा रही है।
लेकिन आज हमारे अधिकांश लोग इस परम्परा को भुलाने का काम कर रहे हैं।आज मांस मदीरा का पान कर होली के मनाने के आदर्शों को भुलाने का काम कर रहे हैं जो सर्वथा अनुचित है। तो दूसरी ओर पेड़ों की धड़ल्ले से कटाई एवं खेतों के बंजर होने से होलिका दहन सामग्री कम होती जा रही है तो वहीं ग्रामीण सड़कों के पक्कीकरण से सड़कों पर धूल नदारद है।