लौंडा नाच के महान कड़ी पद्मश्री पुरस्कार के धनी रामचन्द्र नहीं रहे अंतिम संस्कार रिविलगंज घाट पर

लौंडा नाच के महान कड़ी पद्मश्री पुरस्कार के धनी रामचन्द्र नहीं रहे अंतिम संस्कार रिविलगंज घाट पर

लौंडा नाच के महान कड़ी पद्मश्री पुरस्कार के धनी रामचन्द्र नहीं रहे अंतिम संस्कार रिविलगंज घाट पर

P9bihar news 


सत्येेन्द्र कुमार शर्मा,

पद्मश्री रामचंद्र माँझी का अवसान भोजपुरिया समाज और संस्कृति के लिए अपूरणीय क्षति हैं।उनके निधन से एकाएक शोक की लहर दौड़ गई है।सोशल मीडिया पर अनेक लोगों द्वारा श्रद्धा सुमन अर्पित किया गया है।
 लौंडा नाच परम्परा के कड़ी रामचन्द्र माँझी को पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया।

भोजपुरी भाषा के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर के लौंडा नाच परंपरा के शैली का आखिरी स्तंभ भी आज उस वक्त ढ़ह गया जब पद्मश्री रामचंद्र मांझी 97 साल की उम्र में संसार से रुखसत हो गए। उन्हें 2021 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पद्मश्री से सम्मानित किया था। बिहार के सारण जिले में जन्मे भिखारी ठाकुर के प्रिय शिष्य का जाना भोजपुरिया समाज भोजपुरी जगत के लोगों के लिए एक बहुत बड़ी सांस्कृतिक  क्षति है।

      भिखारी ठाकुर के लौंडा नाच मण्डली के कलाकार रामचंद्र माँझी को उनके उम्र के चौथे पड़ाव में भारत सरकार ने पिछले वर्ष पद्मश्री की उपाधि से नवाजा था। उनके गुरु और महापंडित राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर को पद्म पुरस्कार प्राप्त नहीं हो सका परन्तु उनके शिष्य और उनकी परम्परा के वाहक रामचन्द्र माँझी ने यह मुकाम हासिल कर लिया कि उन्हें पद्मश्री प्राप्त हुआ है। भिखारी ठाकुर को अंग्रेजी सरकार ने पलामू में चैरिटी करने के एवज में रायबहादुर की उपाधि दी थी। इसके अतिरिक्त उन्हें कई छोटे बड़े तमगे और पुरस्कार प्राप्त हुए थे, परन्तु आज उनकी आत्मा स्वर्ग में इस बात से आह्लादित होगी कि उनके जीवनकाल में जिस लौंडा नाच की परम्परा को देश का अभिजात्य वर्ग हेय दृष्टि से देखता रहा आज उसे पद्म पुरस्कार प्राप्त हो गया है।

भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसंबर1887 को तथा उनका निधन 10 जुलाई 1971 को हुआ था। जिस जमाने में वे खूबसूरत लड़कों को लड़कियों के भेषभूषा में सजाकर मंच पर उतारते थे, उससे समाज के एक बड़े वर्ग को नाच देखकर संतुष्टि मिलती थी।भोजपुरी भाषी क्षेत्र में मनोरंजन का एकमात्र विकल्प भी रहा है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आमतौर से भिखारी ठाकुर के नाच मण्डली के कलाकार अनुसूचित जाति, पिछड़े वर्ग तथा अल्पसंख्यक समुदाय के ही लोग कलाकार होते थे।

रामचन्द्र माँझी उसी के प्रतिमूर्ति रहे हैं। पिछले तीस-चालीस वर्षों से वे लोग लौंडा नाच को वैकल्पिक मनोरंजन के रूप में प्रस्तुत करने के लिए कार्य करते रहे हैं। इस विषय पर सबने कई लेख, आर्टिकल, समाचार पत्रों एवं स्मारिकाओं में प्रकाशित कराए हैं।परन्तु सारण जिला के मढौरा क्षेत्र के ही रहने वाले युवा शोधार्थी जैनेन्द्र दोस्त को ही यह श्रेय जाता है कि उसने अपने शोध कार्य के दौरान भिखारी ठाकुर के पुराने कलाकारों को ढूँढते हुए गुमनामी के अँधेरे में अपना जीवन गुजार रहे भिखारी ठाकुर के नाट्य कलाकार रामचंद्र  माँझी को कला के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया। जैनेन्द्र अपने स्कूली जीवन में मढ़ौरा के इप्टा नाट्य मण्डली से जुड़े थे

और इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से प्रदर्श कला के लौंडा नाच विधा पर पीएचडी की उपाधि प्राप्त की और सम्प्रति बिहार सरकार के शिक्षा विभाग में डायट के प्राध्यापक के रूप में गया में पदस्थापित हैं। उनकी पत्नी सरिता साज भी एक ऊँच कोटि की गायिका हैं और उन दोनों को जेएनयू में कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए लोगों ने देखा है।

वर्ष 1990 में छपरा शहर के पूर्वी भाग में समाजियों सहित भिखारी ठाकुर की प्रशासन द्वारा प्रतिमा स्थापित की गई। उस वक्त सारण के तत्कालीन जिला अधिकारी राकेश श्रीवास्तव ने तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद को बुलाकर भिखारी ठाकुर की प्रतिमा का अनावरण कराया था। लालू जी भी नाच के शौकीन रहे हैं और उनके डेरे पर ठाकुर जी की नाच मंडली उनके मृत्यु के उपरांत कई बार कार्यक्रय प्रस्तुत कर चुकी है। लालू प्रसाद ने ही पटना के चितकोहरा ओवर ब्रिज का नाम भिखारी ठाकुर के नाम पर रखा है।

छपरा में सब ने बिहार सरकार के पूर्व वित्त राज्य मंत्री स्वर्गीय डॉ.(प्रो.) प्रभुनाथ सिंह की प्रेरणा से भिखारी ठाकुर लोक साहित्य एवं संस्कृति महोत्सव नामक संस्था का गठन किया, जो प्रतिवर्ष पिछले तीस वर्षों से 18 दिसम्बर और 10 जुलाई को नाच, नाटक तथा लोकसंगीत का सांस्कृतिक कार्यक्रम करती रही है।सब ने कई बार इन मंचों पर रामचंद्र माँझी, शिवलाल बारी, प्रभुनाथ ठाकुर, लखीचंद आदि कलाकारों का कार्यक्रम कराया है और उन्हें सम्मानित भी किया है।

इन्हीं कार्यक्रमों के दौरान देश के प्रख्यात कवि स्वर्गीय डॉ. केदारनाथ सिंह ने भिखारी ठाकुर के इन कलाकारों की नाच को देखते हुए कहा था कि इस तरह के मनोरंजन को देखना उसी तरह है जिस तरह हिमाचल की बर्फीली चोटियों के बीच हजारों वर्ष से संरक्षित किसी मछली को देखना। आज लौंडा नाच की आवश्यकता इसलिए भी है कि हमारे पास में कोई स्वस्थ मनोरंजन के साधन उपलब्ध नहीं हैं। आये दिन शादी-विवाह एवं अन्य अवसरों पर होने वाले रिकॉर्डिंग डाँस में मजबूर लड़कियों द्वारा अश्लीलता एवं अंग प्रदर्शन का भौंड़ा स्वरूप ही दिखाया जाता है।

इसके चलते आये दिन मारपीट, गोलीबारी और हत्याएं तक हो जा रही हैं। जिससे हँसी-खुशी का माहौल गम एवं विषाद में परिणत हो जा रहा है। साठ के दशक में अकेले सारण जिला में सौ से ज्यादा लौंडा नाच की मण्डलियाँ थीं, जो भिखारी ठाकुर की परंपरा में ही विदेशिया, बेटी बेचवा, पिया निसअईल, जालिम सिंह, भाई विरोध, दामाद बध आदि दर्जनों नाटक प्रस्तुत करते थे। लोग नाच देखने के शौकीन भी थे रात में साथी मित्रों के साथ लोग कोस-डेढ़ कोस नाच देखने जाया करता थे, यही कारण कि लौंडा नाच की लोक परंपरा को जिंदा रखने का एकेडमिक प्रयास किया गया।

विदेशिया एवं बेटी बेचवा की चालीस से ज्यादा प्रस्तुतियां की गई।वर्ष 2009 में मॉरीशस में विश्व भोजपुरी सम्मेलन के मंच पर इसी विषय पर आलेख पाठ किया गया। परन्तु हम शुक्रगुजार हैं जैनेंद्र दोस्त के जिसने भिखारी ठाकुर रंग मण्डल एवं शोध संस्थान बनाकर इस विलुप्त हो चुकी नाच विधा को आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत करने का एक साहस भरा कदम उठाया है। उसी का जीता-जागता उदाहरण रामचन्द्र माँझी की पद्मश्री की उपाधि को प्राप्त करना भी है। आर्थिक अभाव में दम तोड़ रही लौंडा नाच की मंडलियों को अब कम से कम भोजपुरिया समाज में ऊँचा सम्मान प्राप्त हो सकेगा और लोग इसके तरफ इसलिए भी मुखातिब होंगे कि इसमें मनोरंजन का वैकल्पिक साधन बनने की क्षमता है।

जय प्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा को भी भिखारी ठाकुर के नाम से नाट्य चेयर की स्थापना करनी चाहिए और इस विधा को स्थानीयता से निकाल कर वैश्विक परिदृश्य में प्रस्तुत करने का प्रयास करना चाहिए।लोग इस परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए प्रयासरत रहेंगे, क्योंकि यह मनोरंजन का एक स्वस्थ साधन बनने की क्षमता रखता है। सारण, देश और विदेश में बसे लाखों भोजपुरिया की ओर से रामचन्द्र मांझी जी को विनम्र कोटि-कोटि श्रद्धांजलि।
आज उनका अंतिम संस्कार रिविलगंज घाट परंपरागत ढ़़ंग से किया गया।