द स्टेट मैन नीतीश कुमार

द स्टेट मैन नीतीश कुमार

प्रमोद कुमार


मोतिहारी,पू०च०।
सबसे कठिन परिस्थिति में जो अपने नर्व पर कंट्रोल रख पाता है ,जो रेत से महल खड़ा कर देता है,अंधकार से उम्मीद और उदासी में मुस्कान बिखेर देता है।द स्टेट मैन नीतीश कुमार कहलाता है।

1977,और 1980 चुनाव में हार के बाद सामाजिक और राजनीतिक अस्तित्व का संकट नीतीश के सामने था.बिना चुनावी जीत के ना तो उनकी पहचान होती न ही घर,परिवार में सम्मान.वो राजनीति में आदर्शवाद के साथ थे,राजनीति में आने का एक मकसद था और इस लक्ष्य को साथ लिए उन्होंने अपने इंजीनियर बनने के मार्ग को भी रोक दिया था।

राजनीति का जुनून था लेकिन वक्त बेहद कठिन पिताजी का देहांत हो चुका था। यानी उनकी डॉक्टर की फीस के रूप में आनेवाली नकदी बन्द हो गयी थी।वो खुद पिता बन चुके थे 1980 में जीत का पूरा भरोसा था।लेकिन 5000 मतों से हार ने न केवल मानसिक आघात दिया बल्कि आर्थिक सामाजिक तौर पर भी उन्हें तोड़ दिया था।

कई मैगज़ीन में लेखों से कुछ पैसे आ जाते थे,पर ये सब नाकाफी था।इन परिस्थितियों में उन्होंने राजनीति के सपने को छोड़ ठेकेदार बनने की ठान ली,लेकिन कुछ करीबी(विजय कृष्णा) लोगों ने रोक लिया।उसवक्त राजनीति में सक्रियता दिखाने और लोगो से मिलने के लिए उन्हें पटना और दिल्ली जाना होता था,रोज बख्तियारपुर से पटना खचाखच भरी ट्रेन में खड़े होकर ही जाना होता था अक्सर उन्हें कोई न कोई पहचानकर अपनी सीट दे देता था।

रोज अखबार और टिकट लेने के बाद उनके पास ज्यादा पैसे बचते नही थे।पैसे की जरूरत हमेशा थी लेकिन माँगना उनके लिए बड़े संकोच की बात थी।बड़े बहनोई हमेशा उनकी मदद किया करते थे।ऐसे ही हताशा के माहौल में  चेन्नई में उनके मित्र और परामर्शदाता सुरेश शेखर ने उनको वहां बुलाया।वापस आने के बाद उनमे नई ऊर्जा और ताजगी थी।इसी दौरान उनका संपर्क चंद्रशेखर से हुआ जिन्होंने उनकी मदद की,वो अपने आखिरी चुनाव 1985 की तैयारी कर रहे थे।इंदिरा जी की हत्या के बाद कांग्रेस के प्रति जबरदस्त सहानुभूति थी।

ऐसे में नीतीश कुमार 1984 के लोकसभा चुनाव लड़ने के लालच में नही पड़े,85 का चुनाव जून में था लेकिन लहर देखते हुए राजीव गांधी ने इसे फरवरी में ही रख लिया।ऐसा होने से नीतीश कुमार के पास समय बहुत कम रह गया। प्रचार अभियान का काम जल्दी शुरू करने के लिए उनके पास कोई धनराशि नहीं थी। लोक दल ने उन्हें हरनौत का टिकट, एक जीप और 1 लाख रुपए दिये—एक ऐसा चुनाव लड़ने के लिए, जहाँ हरेक प्रमुख प्रत्याशी औसतन 10 लाख रुपए खर्च कर रहा था। ऐसे में उनके मित्र अरुण सिन्हा ने जब उनसे पूछा इसबार उनकी जीत की संभावना क्या है ?

"पता नहीं। चुनाव में सैकड़ों कारण काम करते हैं," उन्होंने जवाब दिया, फिर उन्होंने एक आकर्षक मुसकान फेंकी और कहा : "मैंने मंजू को बता दिया है : मुझे एक बार और कोशिश कर लेने दो। अगर मैं सफल नहीं होता हूँ तो मैं चुनाव की राजनीति से संन्यास ले लूँगा।" उनके मन में कहीं यह सोच भी चल रही थी कि वह चुनाव की राजनीति में एक परित्यक्त जैसे हैं।जे.पी. और लोहिया जैसे महान् नेताओं का उदाहरण उनके सामने था, लेकिन कड़वा सच यह था कि एक विधायक निर्वाचित हुए बिना राजनीति में उनकी जगह कहीं नहीं होगी। उनके पास अपने गुरुओं जैसा करिश्माई व्यक्तित्व नहीं था। उन्हें किनारे कर दिया जाएगा और भुला दिया जाएगा।

न कोई पद होगा और न कोई वेतन। ऐसी दशा में उन्हें समाज में, अपने और मंजू के परिवारों में कोई सम्मान नहीं मिलेगा। इन सब चिंताओं के कारण उन्होंने इस चुनाव अभियान में खुदको झोंक दिया।हरनौत में अपनी एक विशाल जनसभा में बोलते हुए। नीतीश कुमार ने कह दिया कि वह आखिरी बार अपने लिए वोट माँग रहे हैं और अगर वे इस बार भी उन्हें नहीं चुनेंगे, तो वह जीवन में फिर कभी कोई चुनाव नहीं लड़ेंगे।

"जब मैंने यह घोषणा की," नीतीश बताते हैं, "सभा में एकदम सन्नाटा छा गया। मैंने सामने बैठे कई लोगों की आँखों को नम होते देखा। मेरी बात उनके मर्म को छू गई थी।लोगों को उनकी एकबात पसंद थी"आठ वर्षों के दौरान कभी उनसे मुँह नहीं फेरा, उनसे मिलना नहीं छोड़ा और उनकी समस्याओं में खुद को हमेशा उलझाए रखा, ताकि संबंधित अधिकारियों से मिलकर उन समस्याओं को हल कराया जा सके।

अपनी हार का नीतीश पर कोई प्रभाव नहीं दिखा और उन लोगों के साथ भी उन्होंने कभी भेदभाव नहीं किया जिन्होंने उनको वोट नहीं दिया था। लोगों की दृष्टि में वह एक ईमानदार, कर्मठ व्यक्ति थे। उनका ध्यान सदैव अपने काम और लक्ष्य पर रहता था। अन्य राजनीतिज्ञों के विपरीत, उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वह पैसे में रुचि नहीं रखते थे।

अपने इरादों पर अडिग रहनेवाला एक सीधा-सादा, स्पष्टवादी, निष्कपट एवं गंभीर व्यक्ति थे। फिर इस चुनाव में उनके प्रबंधको ने व्यावहारिक रुख अख्तियार किया।बूथ लूटने वालो से लड़े, हथियार वालो से मुकाबला करने की ठानी ..धारा के विपरीत इसबार वो चुनाव जीत गए.और बिहार के ध्रुवतारे ने औपचारिक रूप से "ठंडा-घर"(विधानसभा )में प्रवेश किया.आज भी कुछ बदला नही है बाहर निकलते वक्त जेब में पैसे अब भी नही रहते,जरूरत भर ही चीजे रखते हैं और बिहार के पैसे को ट्रस्टी के तौर पर यूँ खर्च करते हैं कि हर बिहारवासी अपनी जरूरत पूरी कर सके,नया बिहार बनाने में योगदान दे सके ।